'एक नारी की व्यथा'

 क्या नारी कभी स्वच्छंद थी ? क्या उसके फैसले कभी उसके अपने थे ? और क्यों कभी उसने उड़ना चाहा तो समाज़ ने उसका पक्ष देखने से इंकार कर दिया?  


इस व्यथित मन से लिखने को मजबूर हो जाती हूँ।  बिहार प्रांत के सासाराम से हूँ और यहाँ के परिवेश की एक मूक आवाज़ हूँ। पिताजी का अपनी मिटटी से लगाव ही हैं जो उनके साथ हमे भी अपने जड़ों से जोड़ें रखा हैं। यही वजह हैं कि शहर और गाँव की जीवनचर्या से वाकिफ़ रखती हूँ। 


वाक्यां बीतें कुछ साल पहले का हैं। माँ-पापा गीताघाट बाबा के यज्ञ में जाने के लिए तैयार हो रहे थे।  मैं हर बार की तरह बालकनी में दौड़ के आयी, उन्हें स्र्ख़सत करने - पर दृश्य ही अलग था. एक आदमी अपनी पत्नी की कलाई पकड़े उसे घसीटे लिए जा रहा था और वो चार-पांच वर्षीय अपने बालक को गोद में लिए उसका विरोध कर रही थी। आस-पास लोग जुट रहे थे पर कोई उनका प्रतिरोध नहीं कर रहा था। लड़की बार-बार इस कोशिश में थी की वो उसका हाथ छोड़ दे, किन्तु वो उसे घर ले जाने के लिए आतुर था। 


ये पहली बार था जब महिलाओं के समान रूप से जीने के अधिकार की अवहेलना का प्रत्यक्ष रूप नेत्र के सामने था। जब उसकी चीख अपने पति के साथ ना जाने की मेरे मन को विह्वल कर रही थी।  मेरे अंदर गुस्से की आवाज़ उठ रही थी, लेकिन मैं भी मूक सी इस दृश्य को देखती रह गयी। क्या उस नारी की तरह मैं भी डरी हुई थी या सिर्फ अपनी कायरता का प्रमाण दे रही थी, इस इंतज़ार में की शायद समाज़ के बड़े समझाएंगे ? सही-गलत की डींगे हांकना और समय रहते उस पर साहस से आवाज़ उठाना कथनी और करनी को परिभाषित करता है और मैं यहाँ विफल थी। 


मोहल्ले की बुआ, चाची जब कुछ नहीं कही तो मुझे अपने भी हस्तक्षेप पर शंका हुई। इतने में माँ सीढ़ी से नीचे उतर कर जैसे ही इस दृश्य से रूबरू हुई वो चिल्लाई - 'छोड़ो उसे, पहले छोड़ो उसे'। मुझे ख़ुशी हुई की माँ बोली पर दुःख हुआ जब पापा ने उन्हें रोक दिया और उन्हें बाइक पे ले चलते बने। उससे भी ज़्यादा दुःख और क्रोध खुद पर था जो स्त्री होकर भी कुछ कह ना पायी।  


माँ की आवाज़ सुन वो लड़का सकपकाया भी था, और उस स्त्री को थोड़ा बल मिला, पर उनके जाने के बाद उस तमाशबीन भीड़ में वह शक्ति जैसे फिर से अदृश्य हो गयी। उसके उपरान्त जो हुआ उसे देख मन ओर भी व्यथित सा हो गया। 


अपनी पत्नी के इच्छा के विरुद्ध वो उसे घर चलने को कह रहा था, और सबके सामने अपना पक्ष रखे जा रहा था कि कैसे पांच साल में आज वो इसके लिए खराब हो गया। वहाँ जुटी भीड़ में खड़े आदमी उस स्त्री को अपने पति के साथ जाने के लिए कहने लगे। पर निराशा तब ज़्यादा हुई जब औरतें भी उसी को समझाने लगी की ये तमाशा अपने घर लेकर जाएँ, और अपनी पति की बात मान कर उसके साथ चली जाएँ।   


समाज के इसी संकीर्णता ने गलत को और बढ़ावा दिया है। सबका साथ मिलता देख उसके पति ने अपनी पत्नी को सबके सामने पीटने की भी बात कह दी लेकिन किसी ने कुछ नहीं कहा। यह विचित्र था। सवाल खड़े करने वाला था और समाज़ में नारी के प्रति क्या सोच, धारणा हैं इसका एक प्रत्यक्ष रूप था। 


मैं नहीं जानती की उन दोनों के बीच ऐसी क्या बात थी जो इतनी बढ़ गयी, कौन सही या गलत था, पर इस तरह का दुर्व्यवहार, जबरदस्ती, धमकी साफ़ तौर पर महिलाओं के प्रति बढ़ती हिंसा का सूचक था। यूएन वुमैन के आंकड़ों के अनुसार महिलाओं के खिलाफ अधिकांश हिंसा वर्तमान या पूर्व पति या अंतरंग भागीदारों द्वारा की जाती है। विश्व स्तर पर, अनुमानित 736 मिलियन महिलाएं - तीन में से लगभग एक - अंतरंग साथी हिंसा, गैर-साथी यौन हिंसा, या दोनों अपने जीवन में कम से कम एक बार (15 वर्ष और उससे अधिक आयु की 30 प्रतिशत महिलाएं) के अधीन हैं।


सवाल करना सिर्फ किताबें नहीं सिखाती, समाज में घटित दिन- प्रतिदिन वाक्यें जो आँखों के सामने होते है और दिमाग में एक रील की तरह चलते रहते है, वो प्रेरक होते हैं। 


एक चौराहे पर जैसे चार महिलाओं की मानसिकता साफ़ उजाग़र थी, जिसमे एक अपने अधिकार के लिए रो रही थी, दूसरी (मैं) पढ़ी-लिखी लेकिन मूक यह देख रही थी, तीसरी( मोहल्ले की महिलाएं) जिन्होंने उसकी गरिमा का हनन किया और चौथी जिनकी आवाज़ साहस तो बनी पर चाहे-अनचाहे फिर अपने पति के व्यवहार के अनुरूप ढल गयी। यह लिखना थोड़ा कठिन ज़रूर हैं क्यूँकि पिताजी के ही नैतिकता के दिए गए मूल्य हैं मुझमे। आज मैं अगर यह लिख पा रही हूँ तो सिर्फ इसीलिए क्यूँकि उन्होंने मुझे पारदर्शिता से अपनी बात रखना सिखाया हैं।  


मेरे जीवन में मेरे समर्थन स्तंभ महिलाओं से ज़्यादा पुरुष वर्ग का रहा हैं, इसीलिए आज इस लघु कहानी का तात्पर्य पुरुषों की उपेक्षा से नहीं अपितु महिलाओं से अपेक्षा से है।  मेरी उम्मीद मुझसे और हर नारी से हैं ताकि हम एक दूसरे की शक्ति, सहनशीलता और सहयोग का स्तम्भ बनें। क्यूंकि मेरे अनुभव में  एक नारी ही नारी को सशक्त कर सकती हैं।     


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