डायरी के पन्नो से - भाग - 1
१३ अगस्त २०२१ आश्चर्य ये है कि जब भी तुम्हें खोल के तुम तक पहुँचती हूँ लिखने के लिए अपने जीवन के अद्भुत, अनर्थ बातें, तुम्हारें इन पन्नों से गुजर कर खुद को फिर भूल जाती हूँ। घर से चार दीवारी के बहार कदम रखते ही खुद को ठगा महसूस करती हूँ। हूँ कोमल स्वभाव की किन्तु कठोरता का ढोंग करती हूँ। आज के समय में लोग बोलने से पहले सोचते नहीं हैं। मैं सोचती हूँ तो बोल नहीं पाती हूँ। सबसे ज़्यादा मुश्किल हैं किसी पर भरोसा करना और रास्ता उसी से चलकर जाता हैं। तो उत्तर के रूप में बस खुद को मन, बुद्धि, चित्त से इतना मज़बूत करना है कि धोखे के कितने रूप क्यों ना आयें, मैं फिर भी आशा बनायें रखूं। अच्छी चीज़ें कम होती है, लेकिन होती हैं। जीवन मुश्किलात से भरी हैं और लाज़मी हैं कि सही, अच्छे इंसान से कभी भेंट ना हो पायें जीते जी किन्तु इससे ये सत्य परिवर्तित कतई नहीं होता की सच्चाई, अच्छाई नहीं हैं। आज जिस मनोभावना से यह बात में कह रही हूँ शायद कल ना हो लेकिन मेरा आज यह मानना और लिखना इसी बात को सत्य साबित करता हैं कि यह शुद्ध भाव भी मन का वासी हैं. इसे...